Main kaise bana kavi aur sangeet ka mahatv vidyaalay mein
मैं कैसे बना कवि और संगीत का महत्व विद्यालय में जो मुझे महत्वपूर्ण स्थान दिलाता है( How I became a poet and the importance of music in school which gives me an important place )
कोई सन 1924 के आसपास की बात है मैं मथुरा के अग्रवाल विद्यालय में शायद तीसरे दर्जे में पढ़ा करता था वह भारत का जागरण काल था समाज सुधारक और राष्ट्रीयता दोनों ही अपने पूर्ण यौवन पर थे शिक्षा संस्था पर भी इनकी गहरी छाप थी हमारे विद्यालय में भी लवर प्रति सप्ताह कोई ना कोई उत्सव आयोजन होता ही है तथा मुझे भी इन अफसरों पर उजले उजले कपड़े पहन कर आ गए घटना में बड़ा आनंद आता था संगीत तो मेरे परिवार के रग रग में था मेरे नाना जी (नंदन गिरवर) अपनी दिनों में ब्रज की रासलीला ओके एक छत्र स्वामी थे मेरे पिताजी (पंडित ब्रजकिशोर जी शास्त्री) को भी स्वर ताल का अच्छा ज्ञान था मेरी जीजी मां के बिना तो हमारी गली मोहल्ले में स्त्रियों का कोई गीत भाग जमता है ही नहीं था क्योंकि मैं अपने माता-पिता की आखिरी संतान था इसलिए उनकी अन्य सब चीजों के साथ संगीत भी मुझे विरासत में मिला था इसी बपौती के कारण मैं अपनी संगीत के घंटे का मॉनिटर बनता था गणेश चतुर्थी के अवसर पर जब हमारी नगर में विद्यालय की गति व जाति शोभायात्रा निकलती थी तो मैं उसका 1 चक्का बनाया जाता था लेकिन मेरा यह संगीत ज्ञान मुझे विद्यालय की सभा समारोह में कोई महत्व नहीं दिला सकता मुझे किसी समारोह में संगीत सुनाने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया यह मेरे साथ सरासर अन्याय था और जहां तक याद पड़ता है जानबूझकर तो मैंने अन्याय को बचपन से ही सहन नहीं किया तभी मैंने देखा कि लोगों के मन में संगीत से अधिक कविता की कद्र है मैंने पाया कि मैंने साथी लड़कों को संगीत सुनने के लिए तो नहीं पर कविता सुनाने के लिए बड़े चाव से आमंत्रित किया जाता है फिर यह भी देखा कि अच्छे बुरे की आदर अनादर की सूचनाएं तालियों द्वारा ही प्रकट होती है मैंने देखता की साथी लड़कों का संगीत सुनने के बाद तालियों के तर तालाब बड़ा भीड़ होती है और उसमें भी लड़के नहीं अध्यापक ही थोड़ा रस लेते हैं मगर कविता के बाद जिस तरह तालियों के खाली बादल गरजते थे उन्हें देखकर मेरे मन में भी कविताएं सुनने की लालसा उत्पन्न होने लगी मात्रा में ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध कवि श्री नवनीत चतुर्वेदी जीवित है उनके वहां अच्छा शिष्य मंडली थी शिष्यों को ब्रजभाषा के अनेक चुटकुले कविता सवैये कंटेस्ट होते हैं बसंत के फूलडोल ओ सावन के दोनों और श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर जगह-जगह उनके पद दंगल जुटा करते थे जिनमें दूर दूर के कविता सुबह पढ़ने वाले मथुरा आया करते थे हार जीत की बाजी लग जाती जिसमें एक से एक रामलला भी हमारे पड़ोसी थे जिन्हें अकेले पावस पर ही कोई सैकड़ों छंद याद थे या उम्र में मुझसे कोई थोड़े ही बड़े थे लेकिन कभी होने के कारण समाज में उनकी गिनती समझदार हो में हो चली थी मैंने राम लाला जी से मेलजोल बढ़ाना प्रारंभ किया मैंने भी और ब्रजभाषा के पुराने कविता याद करने लगा और उन्हें विद्यालय में अपना बता बता कर सुनाने लगा पर शीघ्र ही मैंने देखा कि मतिराम भूषण पद्माकर ग्वाल रसखान और नवनीत के अधिकांश सुनने वाले पहचान जाते है पहचानने के बाद उनमें सुनने वाले की प्रति इतना आदर नहीं रह पाता जितना कि मैं चाहता था तब मैंने अपनी राह बदली और रामलला जी से सुकाबाद कर कर के अपने नाम से कविताएं बनवाने लगा और विद्यालय के उत्सव में छाती तान कर उन्हें गर्व से सुनाने लगा थोड़े ही दिनों में श्रोताओं पर रोक जम गया कि मैं भी अक्षर जोड़ लेता हूं तभी मोड़ मुड़ाते ही ओले पड़े हमारे नगर के प्रति वर्ष नुमाइश लगा करती थी उसमें हर बार एक कवि सम्मेलन हुआ करता था इस कवि सम्मेलन में एक घंटा पूर्व समस्या दी जाती थी और सर्वोत्तम तीन समस्या कुर्तियों पर गोरे कलेक्टर साहब इनाम दिया करते थे इसके लिए शिक्षा संस्थाएं भी अपने यहां से चुने हुए छात्र कभी भेजा करती थी इस बार हमारे विद्यालय से मेरा नाम भी प्रतियोगिता के लिए प्रेषित कर दिया गया मैंने सुना तू मुझे काठ मार गया घबरा हुआ अपने क्लास टीचर के पास गया मेरी क्लास टीचर श्री कामेश्वर नाथ जी थे दीपक की आर्य समाजी थे मेरे पिताजी के मित्र थे मुझ पर भी बड़ा इसलिए रखते थे मुझ जैसे शरारती को चुपचाप किस से आया हुआ था देख कर बोले ओ सर जी क्या बात है मैं धरती की ओर देखता रहा उन्होंने समझाया कि किसी से पीटकर किसी को पीट कर आया है जरा खाई से पूछा बताओ ना क्या बात है तेरे मुंह से फिर भी कोई भूल नहीं निकला लेकिन मेरी आंखों की आद्रता और मुंह की बस्सी ने उनकी रुख आई को ठंडा कर दिया उन्होंने अनुभव किया कि कोई गंभीर बात है मेरे हाथ पर रखकर कुछ करते हुए बोले "बोलो ",बेटा क्या बात है मैंने लगभग हक लाते हुए कहा आपने नुमाइश में मेरा नाम भिजवाया है उन्हें हंसी आ गई कहने लगे हां तो क्या हुआ शाम को ठीक समय पर पांडाल में पहुंच जाना मैं भी वहीं मिलूंगा शब्द आते आते मेरे गले में अटक गए कहने लगे जिस वक्त शुरू शुरू में होती है पर नालायक तूने झिझक ना कब से सीख लिया इस समय सोचता रहा कि कैसे कहूं कहूं कि ना कहूं अंत में साहस करके मैंने कह दिया की जी मैं जो कविताएं सुनाया करता हूं वे तो सब पराई होती हैं कोई और अफर होता तो मास्टर जी ने मलते मलते मेरे कान सुर्ख कर दिए होते लेकिन भगवान की कृपा से इस बार उन्होंने वैसा कुछ नहीं किया मुस्कुरा कर बोले ध तेरी की| पर अब क्या हुआ हमने तो विद्यालय से अकेले तुम्हारा ही नाम भेजा है तुम्हारी ना जाने से बड़ी बदनामी होगी मैं इसका क्या जवाब देता वह भी कुछ देर चुप सोचते रहे फिर एकाएक मेरा भविष्य जैसे उनकी आंखों में चमक गया हो ऐसे उत्साह से भर कर बोले कविता करना बहुत आसान है| तुम घबराओ नहीं|देखो, वहां मामूली मामूली सी समस्या दी जाएंगी यही आई है गाई सुहायौ है
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